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विवेकानन्द साहित्य >> विवेकानन्द चरित

विवेकानन्द चरित

सत्येन्द्रनाथ मजूमदार

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :324
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5955
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक विवेकानन्द चरित....

Vivekanand Charit

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वक्तव्य

(प्रथम संस्करण)

यह पुस्तक बंगला के प्रसिद्ध लेखक श्री सत्येन्द्रनाथ मजूमदार की मूल पुस्तक ‘‘विवेकानन्द-चरित्र’’ का अनुवाद है। स्वामी विवेकानन्द भारत के महान सन्त थे, जिनके हृदय में स्वदेश-प्रेम की अग्नि सतत प्रज्ज्वलित रहती थी। आपने भारतीय और विश्व-संस्कृति के पुनरुद्धार और विकास में अमूल्य योग-दान दिया है। आध्यात्मिक उपदेष्टा तथा राष्ट्र-निर्माता के रूप में आपका भारतीय इतिहास में अत्यन्त उच्च तथा स्पृहणीय स्थान है। आपने हिन्दू धर्म को नव-जीवन से अनुप्राणित किया, पश्चात्य देशों को वेदांत के सत्य से अवगत किया तथा विश्व-विख्यात ‘रामकृष्ण’ को प्रस्थापित कर ‘‘आत्मनो मोक्षार्थं, जगद्धिताय च’’ के उच्च आदर्श के अनुसार सेवा के महत्त्व को प्रसारित किया। उनके सन्देश तथा उनके दैवी एवं अतुल शक्तिशाली व्यक्तित्व ने नव भारत को नए ढाँचे में ढाला है जिससे वह उनका सदैव कृतज्ञ रहेगा।

हम श्रीयुत सत्येन्द्रनाथ मजूमदार कलकत्ता को हार्दिक धन्यवाद देते हैं कि उन्होंने हमें अपने मूल ग्रंथ ‘‘विवेकानन्द-चरित’’ का हिन्दी अनुवाद कराकर छपाने की अनुमति प्रदान की। मूल बंगला का हिन्दी रूपान्तर हिन्दी दैनिक ‘लोकमत’ , नागपुर के भूत-पूर्व सम्पादक पं. मोहिनीमोहन गोस्वामी ने बड़ी सफलता के साथ किया है। अतः हम उनके अत्यन्त आभारी हैं।
श्री पं. शुकदेवप्रसादजी तिवारी (श्री विनयमोहन शर्मा), एम. ए., एल-एल.बी. प्राध्यापक, नागपुर महविद्यालय ने इस ग्रन्थ के प्रूफ –संसोधन आदि में  सहायता दी है, एवं उनमें हमें अनेक मौलिक तथा उपयुक्त सूचनायें प्राप्त हुई है। इसके लिए हम उनके परम कृतज्ञ हैं।

पं. सूर्यकान्तजी त्रिपाठी ‘निराला’ ने इस पुस्तक में आये हुए स्वामीजी के गीतों का प्राञ्जल भाषा में अनुवाद किया है अतः हम उनके अत्यन्त आभारी हैं।
अन्त में हम विज्ञान-विद्यालय, नागपुर के प्राध्यापक साहित्यशास्त्री श्री पं. डॉ. विद्याभास्करजी शुक्ल, एम. एस.सी. पी.एच डी. को भी आवश्यक सहायता देने के उपलक्ष्य में हार्दिक धन्यवाद देते हैं।

हमारा विश्वास है कि स्वामी विवेकानन्द का यह जीवन-चरित हिन्दी जनता को स्फूर्ति प्रदान करेगा तथा अपना उदेश्य पूर्ण करने में सफल होगा।

प्रकाशक

विवेकानन्द-चरित्र
प्रथम अध्याय
बालक विवेकानन्द

(1863-1880)

ॐ नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त वेदान्ताम्बुजभास्करम्।।
नमामि युगकर्तारम् आर्तनाथ वीरेश्वरम्।।


भगवान् श्रीरामकृष्ण के मंगलमय आशीर्वाद को शिरोधार्य कर जिन महापुरुष ने इस उन्मार्गामी, परानुकरणमोह से आच्छन्न, आत्मविस्मृत जाति के  बीच खड़े होकर अद्वैतवाद की गम्भीर गर्जना से सनातन धर्म का पुनः उदोघोष किया, जिनका समाधिपूत अपूर्व ज्ञान तपः सम्भूत अमित तेज की उज्जवल प्रभा विकीर्ण कर दस वर्ष तक मध्याह्न सूर्य के सदृश्य समस्त जगत् में अपनी किरणें फैलाता रहा, जिनकी अक्लान्त चेष्टा एवं निर्भीक आत्मोसर्ग से भारत के एक गौरवमय भविष्य का सूत्रपात हुआ, - और केवल भारत ही क्यों, जो अखिल मानव की कल्याण-कामना से महान युगादर्श को अपने जीवन में मू्र्त बनाकर अवतीर्ण हुए थे।, उन जगदगुरु आचार्य श्रीमद स्वामी विवेकान्द का आविर्भाव एवं  तिरोभाव दोनों ही आज अतीत की घटनाएं हो चुकी हैं।

भारतीय इतिहास के एक संकटमय संक्रान्तिकाल में, इस पराजित जाति के अधःपतन की चरमावस्था में सन्यास के महावीर्य का आश्रम ले जिन महापुरुष ने धर्म, समाज और राष्ट्र में समष्टि-मुक्ति के महान् आदर्श को प्रतिष्ठित किया है, उनके कार्य तथा उपदेशों का ऐतिहासिक महत्त्व इतने अल्प काल में स्पष्ट रूप से हृदयंगम कर लेना बहुत ही कठिन है। समाज की श्रेणियों में जिस समय ऊँच-नीच का भेद असहनीय  हो उठता है, राजदण्ड जहाँ दुर्बलों को अन्यायपूर्वक व्यर्थ पीड़ित करता रहता है, मानव-समाज में जिस समय धर्म की ग्लानि प्रकट होती है, अत्याचारपूर्ण दुर्नीतियाँ जब शतशःरूप धरण करती हुई दिख पड़ती हैं, विनाश जब अवश्यम्भावी तथा निकट हो जाता है, तब पुरातन की जीर्ण मृत देह को श्मशान -चिता में फूँककर उसी की राख ढेरों पर वन स्फुलिंग द्वारा फिर से एक नयी सृष्टि का सूत्रपात होता दिखायी देता है। मनुष्य-समाज को समय-समय पर ध्वस्त कर गढ़ते रहने की आवश्यकता होती रहती है। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए स्वामी विवेकानन्द-सदृश्य महापुरुषों का प्रादुर्भाव होता रहता है।

एक दिन, भारत में स्त्री तथा ब्राह्मणों का भेद चरम सीमा को पहुँच गया था, -अश्वमेध, अमोध, नरमेध यज्ञों के आडम्बरों से भारत खून से लथपथ हो उठी थी, चक्रवर्ती सम्राट् प्रजाशक्ति के कबन्ध पर अपने विजयी रथचक्रों को सोन्माद चला रहे थे, प्रजाशक्ति निर्दयता से रौंदी जा रही थी, तथा शास्त्रों का ज्ञान केवल ब्राह्मणों की श्रेणी तक ही सीमित था, सभ्यता अपनी स्वभाविकता खोकर कृत्रिम हो गयी थी, उस समय इसकी प्रतिक्रिया-स्वरूप भगवान् बुद्ध अवतीर्ण हुए तब, वेद अस्वीकार हो गये, ब्राह्मण-वर्ग हटा दिया गया, स्त्री शूद्र धर्म के नाम पर संघबद्ध हुए, चक्रवती सम्राट अपने सिंहासन और राजदण्ड को दूर फेंक भगवान बुद्ध के पदचिन्हों का अनुसरण कर साधारण भिक्खु के वेष में जीवन की संध्या में देश की वीथी-वीथी में भ्रमण करने लगे, सभ्यता की क्रत्रिमता का मैल धुल गया, ऊँच-नीच सर्वसाधारण में ज्ञान का आलोक फैला और भारतवासियों ने एक अनुपम साम्यवाद के आदर्श से अनुप्राणिक हो धर्म और समाज को एक नये साँचे में ढाल लिया। राष्ट्र  साम्यवाद के इस रूप से प्रभावित हो उठा।

यूरोप के रंगमंच पर भी बीते युग में ऐसा ही एक अभिनय हो चुका है। रोम-साम्राज्य में जिस दिन ऊँच-नीच का भेद प्रबल हो चला, विलास और अभिचार स्रोत की भाँति निर्बन्ध बहने लगे, रोम का सम्राट् अपने सम्राज्य में शासन के नाम पर प्रजा-पीड़न करने लगा, दुर्बल प्रजा पीड़ित, आर्त एवं भयभीत होकर जब मृतप्राय इन्द्रित-दास और भोगलोलुप ही बने रहे, उस समय सभ्यता की उस कृत्रिमता के विरुद्ध, उस अधर्म के विरूद्ध, दुर्बल की रक्षा के निमित्त प्रतिक्रिया के रूप में एक नवीन शक्ति का स्फुरण हुआ। एक दिन, निर्धन, मूर्ख बढ़ई के लड़के ने यूरोप के इतिहास को अपने अंगुलिनिर्देशमात्र से परिवर्तित कर दिया। ग्रीस एवं रोम की सभ्यता के बाद यूरोप जब बर्बरता की बाढ़ में बहने ही वाला था, उस समय उस प्रलय-पयोधि से ईसामसीह ने यूरोप को खींचकर उसकी रक्षा की।
 
हमने स्वामी विवेकानन्द के श्रीमुख से सुना है, ‘‘अब तो भारत ही केन्द्र है।’’ और यह भी सुना है, ‘‘हे मानव मृत की पूजा से हम तुम्हें जीवन्त की पूजा के लिए बुला रहे है; गतकाल के शोक करना छो़डकर  वर्तंमान में प्रयत्न करने के लिए हम तुम्हें बुला रहे है है; लुप्त मार्ग के पुनरुद्धार में वृथा शक्तिक्षय करने की अपेक्षा वननिर्मित, विशाल तथा समीप के पथ पर हम तुम्हें बुला रहे हैं बुद्धिमान् ! समझ लो। जिस शक्ति के आविर्भाव के साथ ही दिग-दिगन्त में उसकी प्रतिध्वनि उठ चुकी है, अपनी कल्पना द्वारा उसकी पूर्णता का अनुभव करो और वृथा सन्देह, दुर्बलता तथा दास-जाति-सुलभ ईर्ष्या-द्वेष को छोड़, इस महायुगचक्र के प्रवर्तक में सहायक बनो।’’

स्वामी विवेकानन्द के विचार एवं उनका चरित्र मानवसभ्यता के परिवर्तन के इतिहास की परम्परा की रक्षा करते हुए ही एक के बाद दूसरे स्तर में क्रमशः विकसित हुए हैं। उस विकास की धाराएँ वैचित्र्यपूर्ण  होने के कारण समझने में कठिन हैं; अतः उनके सामंजस्य की रक्षा करते हुए संग्रहित सामग्री को ठीक-ठीक उपस्थिति करने में, सम्भवता है, सभी जगह में सफल न हो पाऊँ; फिर भी महापुरुषों की इस वाणीपर श्रद्धा रखते हुए कि लोकोत्तर चरित्र-सम्पन्न महापुरुषों महामानवों की पवित्र जीवनी की चर्चा से हमारा विशेष कल्याण होता है, मैं इस कार्य में अग्रसर होने का दुःसाहस कर रहा हूँ। अस्तु।

कलकत्ता नगरी के उत्तर भाग में सिमुलिया मोहल्ले में गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट पर दत्त-परिवार के विशाल भवन का एक जीर्ण बहिर्द्वार आज भी अतीत वैभव का साक्षी बना खड़ा है। दत्त-वंश का ऐश्वर्य और ख्याति, ‘बारह महीने के तेरह उत्सव’ का आडम्बर एक सुप्रीम कोर्ट के नामी वकील राममोहन दत्त के सिवाय में सिमुलिया के दत्तों के नगर में काफी प्रभाव और प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। राममोहन के पुत्र दुर्गाचरण ने उस समय की प्रथा के अनुसार संस्कृति तथा फारसी भाषा में शिक्षा प्राप्त की और कामचलाऊ राजभाषा अँगरेजी भी सीखकर थो़ड़ी ही उम्र में वकालत प्रारम्भ कर दी। परन्तु राममोहन की ऐश्वर्य तथा धनोपार्जन की प्रवृत्ति उनमें न थी। तत्कालीन धनी सन्तानों के समान नवीन नागरिक सभ्यता के भोग-विलास उन्हें अपनी और आकर्षित न कर सके। यह धर्मानुरागी युवक अवसर एवं सुयोग पाते ही धर्माशस्त्रों की चर्चा तथा सत्संग किया करते थे। उत्तर-पश्चिम प्रदेशों से आये हुए हिन्दी-भाषी वेदान्ती साधुओं के भाव से अनुप्राणित होकर दुर्गाचरण ने  पचीस वर्ष की उम्र में ही सारा ऐश्वर्य एवं सम्मान का बोध छोड़कर संन्यास ग्रहण कर लिया। घर में वे छोड़ गये अपनी चिरविरहिणी धर्मपत्नी और एकमात्र शिशु पुत्र। कहते है, एक बार वाराणसी-धाम में दुर्गाचरण की धर्मपत्नी ने श्रीविश्वेश्वर के मन्दिर के द्वार पर एकाएक अपने पतिदेव के दर्शन जन्मस्थान का दर्शन करने भी आये थे तथा बालक पुत्र विश्वनाथ को आशीर्वाद दे गये थे। उसके बाद और उन्हें किसी ने नहीं देखा। पिता के आगमन के एक वर्ष पहले ही विश्वनाथ की माता का भी निधन हो गया था। संन्यासी के सुपुत्र विश्ववनाथ दत्त ही विश्वविख्यात विवेकानन्द के पिता हैं।

विश्वनाथ ने राममोहन का अनुसरण कर वकालत करना प्रारम्भ कर किया। विश्वनाथ प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। वकालत में व्यस्त रहते हुए भी अध्ययन के प्रति उनका प्रबल अनुराग था। उन्होंने फारसी भाषा सीखी थी। हाफिज की कविताएं उन्हें विशेष प्रिय थीं। अंगरेजी साहित्य, इतिहास आदि पढ़ने के फलस्वरूप धार्मिक कट्टरता उनमें न थी। कई ऊँचे खानदान के मुसलमान उनके असामी थे तथा लखनऊ, इलाहाबाद, दिल्ली, लाहोर आदि स्थानो की यात्रा करने के कारण वे समय के अनेक शरीफ मुस्लिम परिवारों के घनिष्ठ सम्पर्क में भी आ चुके थे। फलतः वे मुसलमानी रीति-रिवाजों को सम्मान की दृष्टि से देखते और उनकी पाबन्दी भी करते थे। इधर धर्म के सम्बन्ध में बाइबिल के अध्ययन के कारण वे ईसाई-धर्म के भी प्रेमी थे। तात्पर्य यह है कि धर्म, ईश्वर आदि के बारे में वे कुछ विशेष ऊहापोह नहीं करते थे। धनोपार्जन करना और जीवन को सुखी रखना, इसी एक साधारण आदर्श पर वे चलते थे, जैसा कमाते-खर्च भी वैसा ही करते थे। आत्मीय-स्वजनों  और बन्धु-बन्धनों का नित्य आतिथ्य-सत्कार करना तथा आवश्यकता से अधिक नौकर-चाकर गाड़ी-घोड़े रखकर बड़े ठाट-बाट से रहना विश्वनाथ दत्त पसन्द करते थे। स्वातन्त्र-प्रेमी, उदारहृदय, मित्रवत्सल, अतिथियों के प्रतिफल विश्वनाथ के धनजनपूर्ण विशालभवन में किसी आर्थिक सुख की कमी नहीं थी। परन्तु पति-सौभाग्य-गर्विता भुवनेश्वरी देवी एक प्राचीनपन्थी हिन्दू महिला थीं।


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